भटकाव, इस काल खंड की सबसे बड़ी विडंबना रही है। मिलावट से लबरेज मिश्रित ज्ञान, सोच को कुंठित कर रहा है। ऐसा नहीं है कि इस पुस्तक के अध्ययन मात्र से विचारों की समग्र कुंठा, क्षण मात्र में फना हो जायेगा। मुमकिन है कि एक नये कुंठा की उत्पत्ति हो जाए। क्योंकि, इस पुस्तक में ज्ञान के जिस गुणसूत्र को समाहित करने की कोशिश की गई है, उसका संबंध उदाप्त विचारों में समाहित होता है। इसको समझने के लिए अनहद की गहराई में गोते लगाना होगा। विचारों की चंचलता को शून्य की परिधि में समेटना होगा। यह तभी मुमकिन है, जब ज्ञान की उत्कृष्ट और दमित इच्छाओं को एकांकी में वशीभूत किया जा सके। समझ की सहज और सग्रही प्रवृत्ति को स्वयं में समाहित किया जा सके।
यह पुस्तक शब्दों की अल्पता से निकल कर, समग्रता की परिकल्पना को साकार करने का एक प्रयास है। सोच की जड़ता को अणु की गहराई में उतारने का एक प्रयास है। यह अनहद के चक्षु से अंतर्मन में झांकने का एक सम्यक् प्रयास है। इसमें अर्थतंत्र की गहराई और सामाजिक बदलाव का साक्ष्य भी है। क्योंकि, बदलाव जीवन के निरंतरता का द्योतक होता है और यह अर्थ की सहमति के बिना संभव नहीं है।
यदि, यह पुस्तक आपके विचारों को तरंगित कर सका, तो मेरा यह प्रयास सफल माना जायेगा। यदि, पुस्तक को पढ़ते हुए ज्ञान के आभामंडल से प्रकाश का प्रस्फुटन हो पाया, तो मेरा प्रयास सफल माना जायेगा और यदि, इस पुस्तक को पढ़ते हुए आपके मन में एक क्षण के लिए भी अनहद की अनुभूति हो गई, तो मेरा यह प्रयास सफल माना जायेगा। ब्रह्मांड में बिखरे शब्दों की अनंत शक्ति से महज एक अणु निकाल कर, इस पुस्तक के माध्यम से परोसने की मेरी यह तुच्छ कोशिश, शायद आपको पसंद आ जाये! यदि, ऐसा हुआ तो, यह मेरा सौभाग्य बन सकता है ।